भगवद गीता में छुपा लाइफ मैनेजमेंट का सन्देश भाग -1

आज से लगभग 5000 साल पहले , महाभारत के युद्ध में भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को जो उपदेश दिया था उसे गीता कहा गया। गीता एक महान ग्रन्थ होने के साथ साथ दुनिया में सबसे ज्यादा पढ़ी जाने वाली पुस्तको में शामिल है। गीता हमें व्यवहारिक और सैद्धांतिक हर प्रकार की शिक्षा देती है। आज बड़े बड़े शिक्षण संस्थानों में गीता को मैनेजमेंट की किताब के रूप में पहचान मिली है। गीता के 18 अध्यायों के करीब 700 श्लोकों में हर उस समस्या का समाधान है जो कभी ना कभी हर इंसान के सामने आती है।

इस लेख को हम २ भागो में लिखेंगे  पहले भाग में में हम गीता के 5  चुने हुए श्लोको का अध्यन करेंगे।

1-

योगस्थ: कुरु कर्माणि संग त्यक्तवा धनंजय।
सिद्धय-सिद्धयो: समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।।

अर्थ- हे धनंजय (अर्जुन)। कर्म न करने का आग्रह त्यागकर,
यश-अपयश के विषय में समबुद्धि होकर योगयुक्त होकर,
कर्म कर, (क्योंकि) समत्व को ही योग कहते हैं।

 

मैनेजमेंट सूत्र – मोहग्रस्त अर्जुन को भगवान ने धर्म का अर्थ कर्तव्य के रूप में समझाया। अर्थात कर्तव्य ही धर्म है। आज के युग में हम धर्म को अपने अपने ढंग से परिभाषित करने लगे है। कभी धर्म को कर्म कांड , कभी रूढ़ियों से जोड़ के समझ जाता है। हमें अपने कर्तव्य को पूरा करने के लिए प्रतिबद्ध रहना चाहिए
हमें अपने कर्तव्य को पूरा करने में कभी यश-अपयश और हानि-लाभ का विचार नहीं करना चाहिए। बुद्धि को सिर्फ अपने कर्तव्य यानी धर्म पर टिकाकर काम करना चाहिए । इससे परिणाम बेहतर मिलेंगे और मन में शांति का वास होगा। कर्तव्य हमारी अपने परिवार ,अपने समाज ,और स्वयं के प्रति जिम्मेदारी है ,
हमें अपने कर्म ( अपनी जॉब , अपना बिजनेस , अपने दायित्व ) को धर्म की तरह मानना चाहिए। और एकाग्रचित होकर अपने कर्म का पालन करना चाहिए

2-

नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना।
न चाभावयत: शांतिरशांतस्य कुत: सुखम्।।

अर्थ-

योगरहित पुरुष में निश्चय करने की बुद्धि नहीं होती और उसके मन में भावना भी नहीं होती।

ऐसे भावनारहित पुरुष को शांति नहीं मिलती और जिसे शांति नहीं, उसे सुख कहां से मिलेगा।

मैनेजमेंट सूत्र – हम सब मनुष्य सुख की इच्छा रखते है , और इसी सुख की प्राप्ति के लिए हम जीवन भर प्रयासरत रहते है। परन्तु सुख का मूल तो हमारे अपने मन में स्थित होता है। जिस मनुष्य का मन इंद्रियों यानी धन, वासना, आलस्य आदि में लिप्त है, उसके मन में भावना ( आत्मज्ञान) नहीं होती।हमें अपने लक्ष्य (सुख ) को पाने के लिए मन पर नियंत्रण रखना चाहिए नहीं तो हम कभी सुखी नहीं रह सकेंगे। इंसान की इच्छाए कभी समाप्त नहीं होती और प्रगति करने के लिए इच्छाओ का होना जरुरी भी है। पर इच्छाए इतनी प्रबल न हो की वो लक्ष्य प्राप्ति में बाधा बन जाये अतः मन इन्द्रियों पर नियंत्रण ही सफलता की कुंजी है।

3-

विहाय कामान् य: कर्वान्पुमांश्चरति निस्पृह:।
निर्ममो निरहंकार स शांतिमधिगच्छति।।

अर्थ-

जो मनुष्य सभी इच्छाओं व कामनाओं को त्याग कर ममता रहित

और अहंकार रहित होकर अपने कर्तव्यों का पालन करता है, उसे ही शांति प्राप्त होती है।

मैनेजमेंट सूत्र – आज के जीवन के सन्दर्भ में इस शलोक का अर्थ इस प्रकार है की जीवन जो भी लक्ष्य है उनकी प्राप्ति के लिए हमें अपनी इच्छाओ ,कामनाओ और अहंकार का त्याग करना चाहिए। क्योकि कर्म करते वक़्त सिर्फ कर्म को ध्यान में रखना चाहिए और पूरी क्षमता से कर्म करना चाहिए। इससे हमें अकर्म की भावना नहीं होती। अपनी पसंद के परिणाम की इच्छा हमें कमजोर कर देती है। वो ना हो तो व्यक्ति का मन और ज्यादा अशांत हो जाता है। मन से ममता अथवा अहंकार आदि भावों को मिटाकर तन्मयता से अपने कर्तव्यों का पालन करना होगा। तभी मनुष्य को शांति प्राप्त होगी।

4-

न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।
कार्यते ह्यश: कर्म सर्व प्रकृतिजैर्गुणै:।।

अर्थ-

कोई भी मनुष्य क्षण भर भी कर्म किए बिना नहीं रह सकता।
सभी प्राणी प्रकृति के अधीन हैं और प्रकृति अपने अनुसार हर प्राणी से कर्म करवाती है
और उसके परिणाम भी देती है।

मैनेजमेंट सूत्र – इस श्लोक में बताया गया है कर्म हमारे जीवन का मूल है। प्रकृति हमसे हर स्थिति में कर्म करवा रही होती है। उदाहरण के लिए मान लो एकगेंहू का दाना अगर मिट्टी में गिर जाये और उसे पानी हवा धुप मिले तो वो पौधा बन जाता है , पर यदि वह ऐसे ही रखा रहे तो भी वह कर्म को प्राप्त होकर सड़ जाता है , अर्थात प्रकृति अपना काम करती रहती है। बुरे परिणामों के डर से अगर ये सोच लें कि हम कुछ नहीं करेंगे, तो ये हमारी मूर्खता है। खाली बैठे रहना भी एक तरह का कर्म ही है, जिसका परिणाम हमारी आर्थिक हानि, अपयश और समय की हानि के रुप में मिलता है। इसलिए कभी भी कर्म के प्रति उदासीन नहीं होना चाहिए, अपनी क्षमता और विवेक के आधार पर हमें निरंतर कर्म करते रहना चाहिए।

5-

नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मण:।
शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्धयेदकर्मण:।।

अर्थ-

तू शास्त्रों में बताए गए अपने धर्म के अनुसार कर्म कर,
क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है
तथा कर्म न करने से तेरा शरीर निर्वाह भी नहीं सिद्ध होगा।

मैनेजमेंट सूत्र- हर मनुष्य को अपने अपने धर्म के अनुसार ही कर्मा करते रहना चाहिए , जैसे एक विद्यार्थी का धर्म है शिक्षा प्राप्त करना , डॉक्टर का धर्म है .अपने मरीजों की सेवा करना और उनका इलाज करना , इसी प्रकार हम सब अपने अपने कामों (धर्म ) से जुड़े है। कर्म किये बिना अपना स्वयं का पालन पोषण भी संभव नहीं । जिस व्यक्ति का जो कर्तव्य तय है, उसे वो पूरा करना ही चाहिए

 

इस लेख का भाग -2 पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करे

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